*अवधूत प्रहलाद संवाद*परमहंस-धर्म:--
सत्य का अनुसंधान करनेवाले मनुष्य को चाहिए कि जो नाना प्रकारके पदार्थ और उनके भेद-विभेद मालूम पड़ रहे हैं, उनको चित्तवृत्ति में हवन करदे।
चित्तवृत्ति को इन पदार्थों के संबंधमें विविध भ्रम उत्पन्न करने वाले मनमें, मनको सात्विक अंहकारमें और सात्विक अहंकार को महतत्व के द्वारा माया में हवन कर दे।
इस प्रकार यह सब भेद-विभेद और उनका कारण माया ही है, ऐसा निश्चय करके फिर उस माया को आत्मानुभूति में स्वाहा कर दे।
इस प्रकार आत्मसाक्षात्कार के द्वारा आत्म स्वरूप में स्थित होकर निष्क्रिय एवं उपरत हो जाए। 43,44.
प्रहलाद जी! मेरी यह आत्मकथा अत्यंत गुप्त एवं लोक और शास्त्रसे परे की वस्तु हैं। तुम भगवानके अत्यंतप्रेमी हो इसलिए मैंने तुम्हारे प्रति इसका वर्णन किया है। 45.